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मवेशियों के गले में तो डाल दी रस्सी, मगर ये आदमी खुद बेलगाम चलता है

 


अदबी संगम के काव्य गोष्ठी ‘शेरी नशिस्त’ में छा गये शायर, कवि
बस्ती। ’उस्ताद शायर ताजीर बस्तवी’ के सम्मान में साहित्यिक संस्था ’‘अदबी संगम बस्ती‘’ के बैनर तले फारूखे आजम पब्लिक स्कूल मोहल्ला मिल्लत नगर में  काव्य गोष्ठी ‘शेरी नशिस्त’ का आयोजन किया गया।     अध्यक्षता कवि डॉ रामकृष्ण लाल ‘जगमग’ और संचालन मशहूर शायर अब्दुर्रब ‘असद बस्तवी’ ने किया ।
अध्यक्षता कर रहे  डॉ रामकृष्ण लाल ‘जगमग’ ने कहा कि  ताजीर बस्तवी की शायरी आम आदमी से जुड़ी हैं और उनके जीवन संघर्षो को स्वर देती है।  जगमग जी की रचना ‘हर पल गीत प्रेम का गाया ,नहीं किसी का हृदय दुखाया, कौन करें अब लेखा-जोखा, जीवन में क्या खोया पाया’  के द्वारा जीवन के द्वंद को शव्द दिया।
 उस्ताद शायद  ताजीर बस्तवी ने कुछ यूं कहा-  मवेशियों के गले में तो डाल दी रस्सी, मगर ये आदमी खुद बेलगाम चलता है,  इस कदर खायें हैं ताजीर दवाएं मैंने ,अब तो टैबलेट की तरह चांद नजर आता है‘ को लोगों ने डूब कर सुना।
काजी अनवार ‘पारसा’ ने यूं कहा - ‘जाने  क्या पढ़के मेरे जिस्म पे फूंका उसने, बर्फ की सेज पर लेटा हूं बदन जलता है ’ सुनाकर वाहवाही लूटी।
विनोद उपाध्याय ‘हर्षित’ ने  गीतों से माहौल में नहीं ऊंचाई दी ‘  कर करके याद कितने ही आंचल भिगोये थे, जाने वो बात क्या थी कि जी भर के रोए थे‘। कुद्दूस अहमद ‘कलीम बस्तवी हकीकी’ ने कुछ यूं कहा- ‘देखने लायक है तेजी भी लहू के धार की, ऐसा ना हो फंस के रह जाए गला  शमशीर का’।  सागर गोरखपुरी ने कुछ यूं कहा- ‘बहुत बिरले ही होते हैं जिन्हें सम्मान मिलता है, समंदर के सभी सीपो में गौहर हो नहीं सकता’। आर यन सिंह ‘रुद्र संकोची’ की रचना ‘कई मेरे चाहने वाले हैं मेरा कोई नहीं, एक तू ही है जो चाहे मुझे मेरा भी है’ को सराहा गया। दीपक सिंह प्रेमी ने ‘ मैं शीशा हूं मुझे तोड़कर बिखरा दो, दुनिया में, मगर हर टुकड़े में तुम अपनी ही तस्वीर पाओगे’ के द्वारा प्रेम को नया स्वर दिया  
 मास्टर तव्वाब अली की शायरी ‘मां के जैसी दुनिया में नेअमत नहीं मिल सकती, मां के ममता की कभी कीमत नहीं मिल सकती’। अशरफ अली अशरफ ने कुछ यूं कहा - ‘टेढ़ा रास्ता टेढ़ी चले, टेड़ी दुनिया टेढ़े लोग, ऐसे में मैंने भी खुद को सीधा थोड़ी करना है’ । जगदीश सिंह ‘दीप’ ने की पंक्तियां ‘ कब तक यूं आप एक ही दर पर झुकेंगे दीप, खिड़की को छोड़ दीजिए गलियों को देखिए’ को श्रोताओं ने सराहा। आफताब आलम  ने यूं कहा-  ‘मैं चाहता हूं मेरे घर के पास जंगल हो, मैं दिन गुजारूं परिंदे शुमार करते हुए’ ने ‘शेरी नशिस्त’ को ऊंचाई दी। डॉ. अफजल हुसैन ‘अफजल’ ने कहा- ‘यहीं पर छोड़कर जाना है सारा, यहां क्या है हमारा,  क्या तुम्हारा, बहुत इतरा रहे थे तुम भी जिस पर,  नहीं जा पाया धन दौलत तुम्हारा’ के द्वारा जिन्दगी की हकीकत बयान किया। असद बस्तवी ने  कुछ यूं कहा- ‘खुशबुओं की तरह ताजगी का हुनर, फूल से सीख लो जिंदगी का हुनर’।  
आदित्य राज ‘आशिक’ की रचना  ‘दरिया में हूं जीते जी किनारा मिले ना मिले मौत आए तो किनारे जरूर ले जाएगी मुझे’ के द्वारा जीवन के द्वंद पर रोशनी डाली।
कवि गोष्ठी और ‘शेरी नशिस्त’ में मुख्य रूप से वसीम अहमद,  अब्दुल हक अंसारी, सलीम अंसारी, अब्दुल सलीम अंसारी, अब्दुल लतीफ, राजू के साथ ही अनेक कवि, शायर और श्रोता उपस्थित रहे। 
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