UP News: अकीदत के साथ मनाया गया इमाम हुसैन का शहादत
कुदरहा। इस्लामी मोहर्रम माह के 10 तारीख को इमाम हुसैन की शहादत का दिन अकीदत के साथ मनाया गया। इस दौरान ग्रामीण क्षेत्रों में ताजिए निकाले गए। कुदरहा विकास क्षेत्र के विभिन्न गांव में मोहर्रम का जुलूस शांतिपूर्वक कर्बला तक जाकर समाप्त हुआ। जुलूस में या हुसैन की सदाएं गूंजती रही। इस मौके पर मासिया भी पढ़ा गया। जुलूस के बाद ताजियों को सुपुर्दे खाक किया गया।
बुधवार को कुदरहा विकास क्षेत्र के कुदरहा, जिभियांव, उजियानपुर परेवा, जमालपुर, परमेश्वरपुर, परसांव, छरदही, थन्हवा मुड़ियारी सहित क्षेत्र के विभिन्न ताजियादारों ने अपने ताजिया को लेकर अपने-अपने कर्बला में पहुंचकर फातिहा पढ़कर ताजिया को कर्बला में दफन कर दिया। नवीं और 10वीं मोहर्रम को लोगों ने रोजा भी रखा। मोहर्रम का त्योहार कुदरहा विकास क्षेत्र में शांतिपूर्वक संपन्न हुआ। इस मौके पर पुलिस प्रशासन पूरी तरीके से मुस्तैद दिखा।
आपको बता दें कि इस्लाम धर्म के नए साल की शुरुआत मोहर्रम महीने से होती है यानी कि मुहर्रम का महीना इस्लामी साल का पहला महीना होता है। इसे हिजरी भी कहा जाता है। हिजरी सन् की शुरुआत इसी महीने से होती है यही नहीं मुहर्रम इस्लाम के चार पवित्र महीनों में से एक है।
क्यों मनाया जाता है मुहर्रम?
इमाम हुसैन और उनके फॉलोअर्स की शहादत की याद में दुनियाभर में शिया मुस्लिम मुहर्रम मनाते हैं। इमाम हुसैन, पैगंबर मोहम्मद के नाती थे, जो कर्बला की जंग में शहीद माने हुए थे।
मुहर्रम क्यों मनाया जाता है?
इसके लिए हमें तारीख के उस हिस्से में जाना होगा जब इस्लाम में खिलाफत यानी खलीफा का राज था। ये खलीफा पूरी दुनिया के मुसलमानों का प्रमुख नेता होता था। पैगंबर साहब की वफात के बाद चार खलीफा चुने गए थे। लोग आपस में तय करके इसका चुनाव करते थे।
जब आया घोर अत्याचार का दौर
इसके लगभग 50 साल बाद इस्लामी दुनिया में घोर अत्याचार का दौर आया। मक्का से दूर सीरिया के गर्वनर यजीद ने खुद को खलीफा घोषित कर दिया। उसके काम करने का तरीका बादशाहों जैसा था जो उस समय इस्लाम के बिल्कुल खिलाफ था। तब इमाम हुसैन ने यजीद को खलीफा मानने से इनकार कर दिया। इससे नाराज यजीद ने अपने राज्यपाल वलीद पुत्र अतुवा को फरमान लिखा, 'तुम हुसैन को बुलाकर मेरे आदेश का पालन करने को कहो, अगर वो नहीं माने तो उसका सिर काटकर मेरे पास भेजा जाए।'
राज्यपाल ने हुसैन को राजभवन बुलाया और उनको यजीद का फरमान सुनाया। इस पर हुसैन ने कहा- 'मैं एक व्याभिचारी, भ्रष्टाचारी और खुदा रसूल को न मानने वाले यजीद का आदेश नहीं मान सकता।' इसके बाद इमाम हुसैन मक्का शरीफ पहुंचे ताकि हज पूरा कर सकें। वहां यजीद ने अपने सैनिकों को यात्री बनाकर हुसैन का कत्ल करने के लिए भेजा। इस बात का पता हुसैन को चल गया लेकिन मक्का ऐसा पवित्र स्थान है जहां किसी की भी हत्या हराम है।
इसलिए उन्होंने खून-खराबे से बचने के लिए हुसैन ने हज के बजाय उसकी छोटी प्रथा उमरह करके परिवार सहित इराक चले गए। मुहर्रम महीने की दो तरीख 61 हिजरी को हुसैन अपने परिवार के साथ कर्बला में थे। नौ तारीख तक यजीद की सेना को सही रास्ते पर लाने के लिए समझाइश देते रहे लेकिन वो नहीं माने। इसके बाद हुसैन ने कहा- 'तुम मुझे एक रात की मोहलत दो ताकि मैं अल्लाह की इबादत कर सकूं' इस रात को 'आशुरा की रात' कहा जाता है, अगले दिन जंग में हुसैन के 72 फॉलोअर्स शहीद हो गए।
तब सिर्फ हुसैन अकेले रह गए थे, लेकिन तभी अचानक खेमे में शोर सुना। उनका छह महीने का बेटा अली असगर प्यास से बेहाल था। हुसैन उसे हाथों में उठाकर मैदान-ए-कर्बला में ले आए। उन्होंने यजीद की फौज से बेटे को पानी पिलाने के लिए कहा लेकिन फौज नहीं मानी और बेटे ने हुसैन की हाथों में तड़प कर दम तोड़ दिया। इसके बाद भूखे-प्यासे हजरत इमाम हुसैन का भी कत्ल कर दिया। हुसैन ने इस्लाम और मानवता के लिए अपनी जान कुर्बान की थी। इसे आशुरा यानी मातम का दिन कहा जाता है इराक की राजधानी बगदाद के दक्षिण पश्चिम के कर्बला में इमाम हुसैन और इमाम अब्बास के तीर्थ स्थल हैं।
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